Saturday, January 4, 2020

हम देखेंगे या कवितेचा भावानुवाद

टीप - CAA चा विरोध करणारे आंदोलक खरे धर्मनिरपेक्ष असतील तर त्यांनी हा भावानुवाद वापरावा, कोणतीही रॉयल्टी आकारली जाणार नाही. खुलं आव्हान ;-)

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ यांच्या हम देखेंगे या कवितेचा भावानुवाद. मूळ कविता शेवटी दिली आहे.

जनहो चला बघाया, निश्चित असे घडाया
विधिलिखित अजेय आहे, हृदयस्थ सत्य जाणूया

दिन तो समीप आहे, त्याचीच ही प्रतीक्षा
शासीत, वंचितांची, संपे आता तितिक्षा

भूमि ही कंप पावे, आमुच्या पदरवाने
पर्वत पहाड होती, येथेच दीनवाणे

विद्युल्लता पडे ही, सत्तेच्या शिरीमुकुटी
असत्य प्रतिकांची, होऊन जाय भुकटी

वंचित असू तरीही, सत्य हे असे सोबती
शासन जाई आता, जन गणाच्याच हाती

उध्वस्त सिंहासने, उध्वस्त होती मुकुटे
सगुण निर्गुणाचा ओंकार ध्वनी प्रकटे

असे अगोचर तरीही, अंतरी राहतो तोच
नट, नाटक नि प्रेक्षक, सारे असतोचि तोच

जन गणात असेल आता, नाद अहम् ब्रह्मास्मि
सामान्य असेल शासक, जो आहे तू अन मी

- ज्ञानेश

मूळ कविता -

हम देखेंगे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
 फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ »
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों[3] के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम[4] के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत[5] उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा[6], मरदूद-ए-हरम[7]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह[8] का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र[9] भी है नाज़िर[10] भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़[11] का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा[12]
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

शब्दार्थ
 विधि के विधान
 घने पहाड़
 रियाया या शासित
 सताधीश
 सत्ताधारियों के प्रतीक पुतले
 साफ़ सुथरे लोग
 धर्मस्थल में प्रवेश से वंचित लोग
 ईश्वर
 दृश्य
 देखने वाला
 मैं ही सत्य हूँ या अहम् ब्रह्मास्मि
 आम जनता

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